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१७ मई, १९६९
क्या यह संभव है कि मृत्युके बाद व्यक्तित्वका लोप हो जाय?
व्यक्तित्वके बारेमें ये धारणाएं... मेरे लिये वे बहुत ज्यादा बदल गयी है, बहुत ज्यादा । आज ही सारे सवेरे... लेकिन एक लंबे अरसेसे, लगभग एक महीनोंसे चीज कुछ और रही है ।
जब लोग व्यक्तित्वकी बात करते हैं तो मानों हमेशा. कम-से-कम पृष्ठ-भूमिमें, कुछ अन्ठगाव, यानी, स्वतंत्र रूपसे रहनेवाला कोई चीज, जिसकी अपनी नियति है; लेकिन अब, जैसा कि इस शरीरमें स्थित चेतना जानती है यह ''किसी चीज' के लगभग स्पन्दनके जैसा है जिमकी अभीके लिये अलग क्रिया है, परंतु गहराईमें, मूल तत्वमें सदा एक ! मानो कोई चीज इस तरह प्रक्षिप्त हों रही हो (विस्तारका संकेत), अभीके लिये एक रूपमै है (संकुचित होनेकी मुद्रा), और फिर.. अपनी इच्छाके अनुसार खपको रद कर सकती है । इसे समझाना बहुत कठिन है, लेकिन स्थायी विभाजनकी भावना बिलकुल गायब हो गयी है, एकदम गायब हों गयी है । यह विश्व (स्पन्दनकी मुद्रा) परम चेतनाका बाह्य रूप लेना है; समग्र अन्तर्दर्शनमें लिये हमारी अक्षमता ही हमें स्थिरताका संवेदन देती है वह है नहीं, वह स्पन्दनकी तरह है या. । तथ्य यह है कि यह रूपोंका खेल है - सत्ता केवल एक है । केवल एक ही सत्ता है, केवल एक, एक 'चेतना', एक 'सत्ता' । अलगाव वास्तवमें.. .मुझे नहीं मालूम क्या हुआ था । उसीने सारी शरारत की है -- सारा दुःख, सारा दैन्य. । यह शरीर अभी, कुछ दिनके लिये अनुभूतियोंके एक क्रममेंसे गुजरा है (वर्णन करनेके लिये वह बहुत लंबा है), यह चेतनाकी उन सभी अवस्थाओंमेंसे गुजरा है जिनमेंसे गुजरा जा सकता है । इस भावसे लेकर कि यह द्रव्य (माताजी अपनी त्वचाको उंगलियोंमें लेती है) ही एकमात्र सत्य है, जड़ द्रव्यको एकमात्र सद्वस्तु माननेके परिणामस्वरूप समस्त दुख-
१४८ दैन्य, हां, वह सब ( वही मुद्रा) और वहांसे लेकर मोक्षतक, सभी अवस्थाओंमेंसे गुजरा है । घंटे-पर-घंटे परिश्रम होता था ।
लेकिन इससे भी पहले कोषाणुओंकी चेतनाने एकताको -- सत्य तत्व- गत एकताको -- अनुभव कर लिया था । अगर इस प्रकारकी भ्रांति गायब हो जाय तो वह समग्र ऐक्य बन सकता है । वास्तवमें, जिस म्रांतिने दैन्यको जन्म दिया है, वह इतनी तीव्रताके साथ जीवनमें आयी कि उसके साथ समस्त विमीषिकाएं और घृणित, भयावनी चीजें आयी जिनकी वह मानव चेतना और धरतीके जीवनमें रचना करती है.. । ऐसी चीजें थी... भयंकर । और तुरंत बाद -- उसके एकदम बाद --मोंअ ।
लेकिन अभी जो जीना बाकी है, यानी, जो अनुभूति अभी चरितार्थ करनी है.. सृष्टिका, द्रव्यका अगला कदम -- सत्य चेतनाकी ओर लौटने'- का अगला कदम । वह हे
यह निश्चित मालूम होता है कि आरंभके जैसी कुछ चीज, परीक्षणके लिये अनुभूति शुरू होनेवाली है ( माताजी अपने शरीरको छूती हैं) ।
यह श्रद्धाकी तीव्रताका प्रश्न है और यह श्रद्धा जिसे जीती है उसे सहन करनेकी शक्तिका प्रश्न है । सब कृउछ आवश्यक अनुभूतियोंमेंसे गुजर सकनेकी क्षमताका प्रश्न है ।
बहरहाल, सभी पुरानी धारणाएं, चीजोंको समझनेके पुराने तरीके, ये सब चले गये, हमेशाके लिये चले गये, बिलकुल जा चुके हैं ।
और यह आवश्यक रूपसे, लोटनेका मार्ग है, इसमेंसे गुजरना जरूरी था, अभी ओर गुजरना है -- लेकिन उसी चीजमेंसे नहीं -- अभी और आगे बढ़ते जाना है, यहांतक कि. यहांतक कि वह 'सत्य' जीनेके योग्य हा जाय । पता नहीं, लगता तो है कि वह जितनी तेजीसे बढ़ा जा सकता है बढ़ रहा है; वास्तवमें, भागवत चेतना काममें लगी है और जितना संभव है उतनी तेजीसे हमें आगे बढ़ा रही है । अब इधर-उधर देर लगाने या ऊंघनेका समय नहीं है ।
(लंबा मौन)
लेकिन व्यक्तित्वसे मेरा मतलब अहंकार नहीं है । मेरा मतलब है, कोई ऐसी चीज जो
समस्त जीवनोंमें एक रहती है, एक ही चीज जो सभी जीवनोंमें प्रगति करती है, अपने विकास-
का अनुसरण करती है । १४९ वही तो परम पुरुष है ।
जी हां, लेकिन कुछ चीज है जो..
वह है परम पुरुष जो अपने बारेमें सचेतन है
जी, हां ।
...आशिक रूपमें ।
हां, यही है । कोई चीज है...
अपने बारेमें आशिक रूपसे सचेतन परम पुरुष ।
जो विकासके एक मार्गका अनुसरण करता हे ।
हां, यही पद्धति है ।
विकासके लिये इस पद्धतिका उपयोग होता है ।
जी हां, मै उसीको व्यक्तित्व कह रहा हू ।
यह तो मालूम है । यही पद्धति है, यही सृष्टिकी पद्धति रही है । चुकी यह सृष्टिकी पद्धति थी इसीलिये लोगोंने इसे भ्रमवश..
अलगाव ।
अलगाव, अहंकार ।
यह त स्पष्ट ह ह यह "कुछ चज" जा बन रहन -पृ:) । वह बना रहता है । वह गायब नहीं हो सकता ।
( मीन)
मुझे पता नहीं क्या होनेवाला है!
शरीरको अपनी चिंता बिलकुल नहीं हैं । वह ऐसे है (माताजी हाय
पसारती हैं), सारे समय : ''जो तेरी इच्छा हों, प्रभो, जो तेरी इच्छा हों .. '' और मुस्कान तथा पूर्ण आनंदके साथ -- इस तरह, इस तरह (माताजी दुनियाके इस पार या उस पार, किसी भी ओरका संकेत करती है)... आश्चर्यकी बात है, उसे एक ऐसी चेतना दी गयी है जिसका समयसे कोई संबंध नहीं है । समझे तुम? इसमें ''जब यह नहीं था या जब वह नहीं रहेगा '' का भाव नहीं रहा -- यह ऐसा नहीं है, यह पूरी तरह गतिशील चीज है । लेकिन सचमुच यह बहुत मजेदार है । और सब, सभी प्रतिक्रियाएं, वेदन, संवेदन, सब बिलकुल बदल गये हैं । रंगक्यामें भी बदल गये है । यह एक भिन्न वस्तु है ।
वे अवस्थाएं जिनमें मनुष्य अपनी उच्चतम चेतनामें हों सकता है, वे जो एक करती है, जो अपने-आप उस परम चेतनाके साथ एक थी, जो सबकी चेतनाको अधिकारमें रखती हैं, -- वही अवस्था शरीरकी स्वाभाविक अवस्था हो गयी है । प्रयासहीन, सहज इससे भिन्न हा ही नहीं सकती । तो क्या होनेवाला है वह कैसे अनूदित होगा? मैं नहीं जानती ।
यह सभी आदतोंके विपरीत है ।
यह क्या चेतना जानती है कि उसे भौतिक रूपसे क्या करना है? ... मुझे पता नहीं । लेकिन शरीर इसकी चिंता नहीं करता । वह क्षण-क्षण वही करता है जो उसे करना है, कोई प्रश्न नहीं करता । कोई झंझट नहीं करता । कोई योजना नहीं, कुछ नहीं, कुछ नहीं ।
तो बात ऐसी है । देखे, मजेदार है ।
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